बच्चों का लालन पालन अब पहले की अपेक्षा अधिक चुनौती पूर्ण हो गया है। संयुक्त परिवार होने के कारण बच्चों के पालन पोषण में परिवार के अन्य सदस्यों का सहयोग मिल जाता था अब माता-पिता के अकेले रहने और साथ ही साथ नौकरी करने के कारण उनके पास समय की बहुत कमी रहती है और बच्चों के पालन पोषण का उत्तरदायित्व पूर्णतः उन्ही के ऊपर रहता है। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने घर के काम और कार्यालय के काम में सामंजस्य बैठना बहुत कठिन हो जाता है। जितनी कुशलता से वे यह काम आप कर पाते हैं उतना ही आसान और लाभप्रद बच्चों का पालन पोषण हो जाता है। वैसे तो बच्चों के पालन पोषण के अपने-अपने तरीके हो सकते हैं परंतु कुछ मूलभूत बातों की तरफ में पेरेंट्स का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। यह स्वाभाविक है कि बच्चे हर काम में माता-पिता के हिस्सेदारी चाहते हैं और यह सहयोग नहीं मिलने से उनके स्वाभाविक विकास में बाधा होती है। जिस समय आप काम कर रहे होते हैं बच्चा उसी समय आपसे बात करना चाहता है आप जरूरी काम छोड़कर उससे बात नहीं करते और बाद में बात करेंगे कह कर उसे दिलासा दे देते हैं यह ठीक नहीं है। बच्चों के काम को प्राथमिकता देना जरूरी है कार्यालय का काम में अगर थोड़ी रुकावट भी आती है तो कोई हर्ज नहीं। कभी-कभी ऐसा भी होता है बच्चों को मोबाइल दे दिया जाता है ताकि उसमें लग रहे और कार्यालय के काम में बाधा न हो। यह ठीक नहीं। कार्यालय के काम के लिए एक उपयुक्त समय निर्धारित करना होगा जब बच्चा विश्राम कर रहा हो। बच्चों के साथ खाली समय में उनके पसंद की कहानी की किताबें पढ़ना या पार्क में या घर में उनके साथ खेलना या अन्य गतिविधियों में उसके साथ संलग्न रहना उनको न केवल खुशी प्रदान करता है बल्कि उनको भावनात्मक रूप से मजबूत भी बनाता है। यह भी देखने में आता है कि घर से स्कूल के लिए बस में बैठाने के लिए जब पैरेंट्स जाते हैं तो बच्चों का बैग स्वयं ले जाते हैं। छोटे बच्चों के लिए ऐसा करना ठीक है लेकिन जो बच्चे अपना बैग स्वयं उठाने में सक्षम है उनको खुद न ले जाने देना और स्वयं बैग ले जाना उन्हें कमजोर बनाना है। उनको सक्षम और आत्मनिर्भर बनाने के लिए अपना काम खुद करने की आदत डालनी होती है। कभी-कभी आप अपने बच्चों के काम की तुलना या उसके व्यवहार की तुलना किसी दूसरे बच्चे से करते हैं जो उचित नहीं है। आप बच्चे को जो कुछ बताना चाहते हैं वह बिना तुलना के प्यार से बताएं तो अच्छा है अन्यथा उनमें हीन भावना पैदा हो सकती है। आपको कहां पर कितना सख्त और कब कितना नर्म बनना है यह स्थिति पर निर्भर करता है और यह आपको विवेकपूर्ण तरीके से तय करना है। ना तो आप बराबर कठोर रह सकते हैं और ना बराबर मुलायम। पालन-पोषण में रोज नई-नई चुनौतियां आती हैं और इस क्रम में आपको बहुत कुछ सीखने का अवसर मिलता है आप धीरे-धीरे परिपक्व हो जाते हैं। उनके साथ समय बिताना प्राकृतिक स्थानों के भ्रमण पर जाना, उनकी नान-स्टांप बेरोक -टोक बातों को सुनना आपको तो आनंद प्रदान करता ही है, उनको भी परम संतोष देता है और उनके ज्ञान को बढ़ाता है। खाली समय में अगर बच्चे को अन्य गतिविधियों यथा ड्राइंग, पेंटिंग, कहानी की पुस्तकें पढ़ना या खेलों में लगाया जाए तो स्क्रीन की लत से छुटकारा पाया जा सकता है। बच्चों की कुछ अच्छी फिल्में और कुछ कार्टून देखने की अनुमति दी जा सकती है। बच्चे कभी-कभी अपनी अनुचित मांग को पूरी करने के लिए नखरा करते हैं, जिद करते हैं यह आपको समझने की जरूरत है। यदि उनकी मांग सही है तो उसको पूरा कर देना चाहिए और यदि अनुचित मांग कर रहे हैं तो नखरा करने के बाद भी उनको समझा कर शांत कर देना चाहिए। हर मांग को पूरा करना ठीक नहीं। अगर एक बार ऐसा हो गया तो यह बार-बार इसी का सहारा लेकर गलत काम करवाते रहेंगे। बच्चों के विषय में सभी निर्णय आप अपनी इच्छा के अनुसार नहीं ले सकते उसमें बच्चों की इच्छा का भी महत्व है। हमारी नैतिक जिम्मेवारी है कि हम बच्चे को स्थापित मूल्यों के अनुसार गढ़े, अनुशासित बनाए, परिवार के अच्छे संस्कारों से उन्हें संस्कारित करें परंतु उनके करियर के निर्धारण में उनकी पसंद, उनके झुकाव को ध्यान में रखकर निर्णय लेना आवश्यक है उस पर अपनी पसंद लादना और अपनी अपेक्षाओं के अनुसार उन्हें चलने के लिए बाध्य करना सर्वथा अनुचित है।
18 वीं लोक सभा में पहले दिन संविधान खतरे मे और आपात काल पर निंदा प्रस्ताव पारित किए गए। आज न तो संविधान खतरे में है और न निंदा प्रस्ताव पारित करने की आवश्यकता है। सदन को कुशलता पूर्वक चलाना ज्वलंत विषयों पर चर्चा कर सार्थक समाधान निकालना समय की आवश्यकता है । संविधान का सम्मान और मर्यादा इसी बात में है कि सदन कुशलता पूर्वक चले। पर सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि विपक्ष की बात को सुनने का धैर्य और सहिष्णुता सत्ता पक्ष में होनी चाहिए। विपक्ष की आवाज को दबाना निस्संदेह गैर लोकतांत्रिक है और यह संविधान का अनादर है। लोकतंत्र में असहमति के महत्व को रेखांकित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि असहमति वस्तुत: लोकतंत्र का सुरक्षा वाल्व है और इससे सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता को बढ़ावा मिलता है। मेरी समझ से निंदा प्रस्ताव तो पेपर लीक पर पास होना चाहिए था जो लाखों विद्यार्थियों के भविष्य को अंधकार में डाल रहा है। निंदा प्रस्ताव तो भ्रष्टाचार पर पास होना चाहिए जो देश को घून की तरह खाएं जा रहा है और भ्रष्टाचार के इन मामलों में सत्ता सुख भोगने वाले मंत्री और नेता ही लिप्त पाए जाते हैं। निन्दा प्रस्ताव तो मनीपुर की हिंसा पर पास होना चाहिए जो एक वर्ष से हिंसा की आग में जल रहा है और उसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं है। जनता के विश्वास के बल पर सदन में आए देश चलाने वाले लोगों से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे मिलजुल कर, भेदभाव भुलाकर, देश की समस्याओं पर शांति पूर्वक विचार कर सार्थक समाधान निकालें जिससे जनता की भलाई हो और सदन पर उनका विश्वास कायम रह सके।
आए दिन रोज कोई घूस लेते रंगे हाथ पकड़ा जाता है, किसी के ठिकानों पर आयकर और ईडी के छापे पड़ रहे हैं तो कहीं परीक्षाओं के पेपर लीक हो रहे हैं। इन खबरों से समाचार पत्र भरे रहते हैं। इन घटनाओं की बाढ़ आ गई है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा हैं? छोटे से लेकर बड़ी जिम्मेदारी वाले लोग इन घटनाओं के नायक हैं। इस प्रकार के नैतिक पतन का कारण क्या है? क्या इन ग़लत कार्यों को अंजाम देने वाले लोगों के मन में यह सवाल नहीं उठता - यह काम करूंगा तो मेरी आत्मा मुझे कोसेगी, मैं अपनी आत्मा को क्या उत्तर दूंगा? उनकी आत्मा जरूर कोसती होगी पर धन के लिए लालच इतना बढ़ गया है कि लोगों को उचित अनुचित का विवेक नष्ट हो गया है। नैतिक पतन का मुख्य कारण है बचपन से ही हमें चरित्र निर्माण का कठोर प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। पैसा कमाना ही जीवन का लक्ष्य बन गया है और वह भी बेईमानी से, बिना परिश्रम के। यह बचपन से सिखाया नहीं जाता कि सम्मान पूर्वक जीने के लिए ईमानदारी जरूरी है। आज चारों ओर जो भ्रष्टाचार का प्रदूषण फैला हुआ है, जिसमें सांस लेना कठिन हो रहा है यह चारित्रिक कमजोरी का ही परिणाम है। गुलाब कोठारी जी ने ठीक ही कहा है - किसी को निकम्मा बनाना हो अत्याचारी बनाना हो तो उसे सरकार में नौकरी लगा दो। रोज नए कानून बनते हैं पर कोई कानून कारगर नहीं हो रहे हैं। लगता है सरकारी ब्यवस्था चरमरा गई है।